कैवल्य दर्शनम


 

जय भारत जय विश्व 

वर्तमान में द्वापर युग का 325 वाँ वर्ष चल रहा है।




                                   दो शब्द
सभी देशों के और सभी युगों के सद्‌गुरु अपने ईश्वरानुसंधान में सफल हुए है। निर्विकल्प समाधि की अवस्था में पहुंचकर इन सन्तों ने समस्त नाम-रूपों के पीछे विद्यमान अंतिम सत्य को अनुभव किया। उनके ज्ञान और आध्यात्मिक उपदेशों के संकलन संसार के धर्मशास्त्र बन गए। शब्दों के बहुवर्णी बाह्य आवरणों के कारण ये एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं, परन्तु सभी परमतत्व के अभिन्न मूलभूत सत्यों को ही शब्दों में प्रकट करते हैं - कहीं खुले ओर स्पष्ट रूप से तो कहीं गूढ़ या प्रतीकात्मक रूप से।
मेरे गुरुदेव, श्रीरामपुर निवासी ज्ञानावतार स्वामी श्रीयुक्तेश्वर (१८५५-१९३६), सनातन धर्म के और ईसाई धर्म के शास्त्रों में निहित एकता को समझने के लिए विशेष रूप से सर्वतोपरि योग्य थे। अपने मन के स्वच्छ टेबल पर इन शास्त्रों के पवित्र वचनों को रखकर अंतर्ज्ञानमूलक तर्क बुद्धि की छूरी से वे उनकी चीर-फाड़ कर सकते थे और इस प्रकार शास्त्रकार गुरुओं द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों को पण्डितों द्वारा अंतर्विष्ट किए गए वचनों से और उनकी गलत व्याख्याओं से अलग कर सकते थे।
ज्ञानावतार स्वामी श्रीयुक्तेश्वर की अचूक संधानी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के कारण ही यह संभव हो सका कि अब इस पुस्तक के माध्यम से भारतवर्ष के सांख्य दर्शन तथा बाइबिल के समझने में अत्यन्त कठिन यूहन्ना का प्रकाशित वाक्य (रिविलेशन) के बीच मूलभत एकता स्थापित की जा सकती है।
जैसा कि इस पुस्तक की भूमिका में मेरे गुरुदेव ने लिखा है, यह पुस्तक उन्होंने अपने गुरु लाहिड़ी महाशय के गुरु बाबाजी की आज्ञा का पालन करने के लिए लिखी थी। इन तीनों महान गुरुओं के अवतारी जीवन का वर्णन मैंने अपनी पुस्तक योगी कथामृत में किया है।
कैवल्यदर्शनम् में दिए गए संस्कृत सूत्र श्रीमद्भगवद्गीता तथा भारत के अन्य महान शास्त्रों पर काफ़ी प्रकाश डालते हैं।
                                                                                                                   परमहंस योगानन्द
२४९ द्वापर (ईस्वी १९४९)


 





     कैवल्य दर्शनम 

भूमिका


चतुर्नवत्युत्तर शतवर्ष गते द्वापरस्य प्रयागक्षेत्रे। 
सदर्शनविज्ञानमन्वयार्थ परमगुरुराजस्याज्ञान्तु प्राप्य।।
 कड़ारवंश्यप्रियनाथस्वामिकादम्बिनीक्षेत्रनाथात्मजेन । 
हिताय विश्वस्य विदग्धतुष्टये प्रणीतं दर्शनं कैवल्यमेतत् ।।


(प्रयाग क्षेत्र में वर्तमान द्वापर युग के १९४ वें वर्ष में परमगुरुराज (महावतार बाबाजी) से प्राप्त हुई आज्ञा के अनुसार यह कृति जगत के कल्याण के लिए, संसार-तापों से विदग्ध जनों की तुष्टि के लिए प्रकाशित की जा रही है। इस कैवल्यदर्शनम् की रचना कड़ार वंश के क्षेत्रनाथ एवं कादम्बिनी के सुपुत्र प्रियनाथ स्वामी द्वारा की गई है।

इस पुस्तक का उद्देश्य यथासंभव स्पष्टता के साथ यह दिखाना है कि सब धर्मों में सारभूत एकता है; कि विभिन्न धर्मों और पंथों द्वारा प्रतिपादित सत्यों में कोई भेद नहीं है;

* यह पुस्तक १८९४ में लिखी गई थी। उसी वर्ष बाबाजी ने लेखक को स्वामी की उपाधि दी थी। बाद में श्रीयुक्तेश्वरजी को बोधगया के महन्त ने स्वामी परम्परा की दीक्षा दी। उसी के साथ अपने पारिवारिक नाम के स्थान पर उन्होंने अपना संन्यास नाम स्वामी श्रीयुक्तेश्वर धारण किया। वे स्वामी परम्परा की गिरि शाखा से सम्बद्ध थे। (प्रकाशक की टिप्पणी)
 कि एक ही पद्धति से विश्व का क्रमविकास हुआ है बाह्य विश्व का और आंतरिक विश्व का भी, और यह भी कि सभी धर्मशास्त्रों ने एक ही परम ध्येय (ईश्वर) की चर्चा की है। परन्तु यह ऐसा मूलभूत सत्य है जो आसानी से समझ में नहीं आता। भिन्न-भिन्न धमों में और पंथों में चल रहा मतभेद और मानव जाति का अज्ञान, आँखों पर पड़ी पट्टी को खोल कर इस विराट वास्तविकता का दर्शन करना लगभग असंभव-सा बना देता है। भिन्न-भिन्न धमों और पंथों में आपस में वैर-भाव और गहरे मतभेदों को बढ़ावा दिया जाता है; अज्ञान दो पंथों के बीच की खाई को और अधिक चौड़ी करता है। विशेष गुणों से सम्पन्न केवल कुछ लोग ही अपने पंथों के प्रभाव से ऊपर उठकर सभी महान धर्मों द्वारा प्रतिपादित और प्रचलित किए गए सत्यों में सम्पूर्ण एकता को देख पाते हैं।

इस पुस्तक का उद्देश्य विभिन्न धर्मों में निहित समान विचार धारा और सामंजस्य को दर्शाना और इस प्रकार उन्हें एकत्र लाने में सहायता करना है। यह कार्य तो सचमुच अत्यन्त महाकाय है परन्तु इलाहाबाद में यह कार्य मुझे एक दिव्य आज्ञा से सौंपा गया। गंगा, यमुना और सरस्वती के त्रिवेणी संगम से धन्य हुए पवित्र प्रयाग तीर्थ में कुम्भ मेले के समय सांसारिक जन और आध्यात्मिक साधक-सिद्ध एकत्रित होते हैं। सांसारिक जनों ने अपने को जिन सीमा-मर्यादाओं में बाँध लिया है, उन्हें वे पार नहीं कर सकते और आध्यात्मिक साधक भी संसार को एक बार त्याग देने के पश्चात् अपनी ऊँचाइयों से नीचे उतर कर पुनः उसके प्रपंच में नहीं पड़ सकते। फिर भी संसार में पूर्णतः लिप्त हुए सांसारिक जनों को उन महान सिद्ध- साधकों की सहायता एवं मार्गदर्शन की आवश्यकता तो है ही जिन्होंने मानव जाति को सदा ही प्रकाश दिखाया है। अतः किसी ऐसे स्थान का होना अत्यावश्यक हो जाता है जहाँ मानव जाति के ये दो वर्ग एकत्र आ सकें। तीर्थ इस आवश्यकता की पूर्ति करता है। तीर्थ संसार सागर के तट पर स्थित होता है, इसलिए इस सागर के आँधी-तूफान और लहरों के थपेड़े उसे छू नहीं सकते। अतः मानव- जाति के कल्याण का संदेश उन लोगों को देने के लिए जो उसे ग्रहण कर सकते हैं, कुम्भ मेला साधुओं-तपस्वियों को अत्यन्त उपयुक्त स्थान प्रतीत होता है।

ऐसे ही एक संदेश का प्रवर्तन करने के लिए मुझे उस समय चुना गया जब १८९४ के जनवरी महीने में मैं इलाहाबाद के कुम्भ मेले में गया था। मैं गंगा तट पर चलता जा रहा था, तब एक व्यक्ति मुझे बुलाने आया और उसके बाद एक अत्यन्त महान संत् बाबाजी से साक्षात्कार का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। बाबाजी मेरे गुरु काशी के लाहिड़ी महाशय के गुरु थे। इस प्रकार ये महान संत् जिनसे उस कुम्भ मेले में मेरी भेंट हो गयी, मेरे अपने ही परमगुरु महाराज थे, यद्यपि यह हमारी पहली ही भेंट थी।

बाबाजी के साथ मेरी चर्चा में एक विशिष्ट वर्ग के ऐसे लोगों का भी विषय उठा जो आज-कल तीर्थ स्थानों में बहुतायत में देखे जाते हैं। मैंने विनम्रता के साथ कहा कि उस समय उस मेले में उपस्थित अधिकांश लोगों से कहीं अधिक बुद्धिमान लोग विश्व के सुदूर हिस्सों में यूरोप और अमेरिका में रह रहे थे जो विभिन्न धर्मो के तथा पंचों के अनुयायी हैं और कुम्भ मेले के वास्तविक महत्त्व से पूर्णतः अनभिज्ञ हैं। जहाँ तक बुद्धिमानी का प्रश्न है, तो वे ही लोग साधु-संतों के सम्पर्क में आकर उपदेश पाने के अधिक योग्य अधिकारी हैं, परन्तु फिर भी उन विदेशों में रहने वाले ये बुद्धिमान लोग निरे भौतिकवाद में आकंठ डूबे हुए हैं। उनमें से कुछ तो ऐसे भी हैं जिन्होंने विज्ञान और दर्शनशास्त्र जैसे क्षेत्रों में अपने आविष्कारों के लिए ख्याति प्राप्त कर ली है परन्तु फिर भी विभिन्न धर्मों में निहित सारभूत एकता उनकी समझ में नहीं आ रही है। उनके धर्म और पंथ लगभग दुर्लघ्य बाधाएँ बन चुके हैं जिनसे मानव जाति के सदा के लिए विभाजित हो जाने का ख़तरा नज़र आने लगा है।

मेरे परमगुरुजी महाराज मुस्कराये और मुझे स्वामी की उपाधि से विभूषित करते हुए उन्होंने यह पुस्तक लिखने का आदेश मुझे दे दिया। मैं नहीं जानता क्यों, पर बाधाओं को हटाने और सब धर्मो की मूलभूत एकता स्थापित करने में सहयोग देने के लिए मुझे चुन लिया गया था।

ज्ञान के विकास की चार अवस्थाओं के अनुसार इस पुस्तक को चार भागों में विभाजित किया गया है। धर्म का सर्वोच्च ध्येय आत्मज्ञान है। परन्तु यह प्राप्त करने के लिए बाह्य जगत का ज्ञान होना आवश्यक है। अतः इस पुस्तक का प्रथम भाग वेद से सम्बन्धित है और इसमें सृष्टि के मूलभूत तथ्यों की तथा शून्य से उसके विकास की एवं पुनः शून्य में विलय की प्रक्रिया की चर्चा की गई है।

सृष्टि की श्रृंखला में बड़े से बड़े जीव से लेकर छोटे से छोटे जीव भी तीन अनुभूतियों के प्रति उत्सुक दिखाई देते हैं - अस्तित्त्व, चेतना एवं आनन्द। इस पुस्तक के द्वितीय भाग में इन्हीं तीन उद्देश्यों की या ध्येयों की चर्चा की गई है। तृतीय भाग जीवन के इन तीन उद्देश्यों की पूर्ति की पद्धतियों से सम्बन्धित है। चतुर्थ भाग में उन अनुभवों का वर्णन है जो जीवन के इन तीन उद्देश्यों की पूर्ति के मार्ग पर उन्नत हुए और अपने अन्तिम लक्ष्य के पास पहुँचे लोगों को प्राप्त होते हैं।

इस पुस्तक में मैंने जिस पद्धति का अवलम्ब किया है। उसमें पहले मैंने भारतीय ऋषियों की भाषा में विषय से सम्बन्धित संस्कृत सूत्र प्रस्तुत किए हैं और फिर उन्हें पाश्चात्य देशों के धर्मशास्त्रों का संदर्भ देकर स्पष्ट किया है। इस प्रकार मैंने पूर्ण प्रयास किया है यह स्पष्ट करने का कि पौर्वात्य और पाश्चात्य धर्मशास्त्रों की शिक्षाओं में वास्तविकतः कोई अन्तर नहीं है और विरोध तो बिल्कुल ही नहीं। यह पुस्तक मेरे परमगुरुदेव की प्रेरणा से लिखी गई है और द्वापर युग में लिखी गई है जिसमें ज्ञान के सभी क्षेत्रों में तीव्र गति से विकास होता है और हो रहा है। अतः मैं आशा करता हूँ कि इस पुस्तक की सारगर्भिता उन लोगों की पकड़ से बाहर नहीं रहेगी जिनके लिए इस का प्रयोजन है।

यहाँ युगों की काल-गणना की थोड़ी सी चर्चा इस बात को स्पष्ट कर देगी कि अभी पृथ्वी पर द्वापर युग चल रहा है और इस द्वापर युग के १९४ वर्ष (ईस्वी १८९४ में) बीत भी चुके हैं जिसके कारण मानव के ज्ञान में तीव्र गति से वृद्धि हुई है।

भारतीय खगोलशास्त्र से हमें पता चलता है कि सारे चंद्रमा अपने-अपने ग्रहों की परिक्रमा करते हैं और सारे ग्रह अपनी-अपनी धुरी (Axis) पर गोल-गोल घूमते हुए अपने सारे चंद्रमाओं के साथ सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य अपने सारे ग्रहों और उनके चंद्रमाओं के साथ किसी द्विक् तारे को अपना केन्द्र बना कर उसकी परिक्रमा करता है। सूर्य को यह परिक्रमा पूरी करने में हमारी पृथ्वी की गणना के अनुसार २४००० वर्ष लगते हैं। यह अन्तरिक्ष में चलने वाला एक ऐसा भ्रमण है जिसके कारण विषुवबिन्दु सौर ज्योतिषचक्र की विरूद्ध दिशा में पीछे की ओर सरकते रहते हैं। सूर्य एक अन्य प्रकार से भी परिक्रमा करता है जिसमें वह एक महा केन्द्र अर्थात् विष्णुनाभी की परिक्रमा करता है जो स्रष्टा या ब्रह्मा का अर्थात् सृष्टि के चुम्बकत्व का केन्द्र है। ब्रह्मा धर्म का या आन्तरिक जगत् की मानसिक सच्चरित्रता का नियंत्रण करता है।

अपने केन्द्र की या द्विक् तारे की परिक्रमा करता हुआ सूर्य जब महाकेन्द्र अर्थात् ब्रह्मा के केन्द्र से सबसे निकट स्थान पर पहुँचता है (जब शारदीय विषुव मेष राशि के आरंभ स्थान में आता है), तब मानसिक सच्चरित्रता या धर्म इतना उन्नत हो जाता है कि मनुष्य को सहज ही सब ज्ञान हो जाता है, यहाँ तक कि परमतत्व के गूढ़ तत्वों का भी।

यह शारदीय विषुव अब बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में आरोही द्वापर युग* के शुरूआती काल में कन्या राशि के नक्षत्रों में आएगा।



* पृष्ठ १० पर दिया गया रेखाचित्र देखें।
 ऊपर दिये गये चित्र में कन्या राशि, मीन राशि के सामने आ रही है। शारदीय विषुव अब कन्या राशि में पड़ रहा है; तो उसका विपरीत बिन्दु अर्थात् महा विषुव मीन राशि में ही पड़ेगा। पाश्चात्य तत्त्वज्ञानी महा विषुव का ही सबसे अधिक महत्व मानते हैं, इसलिये वे कहते हैं कि विश्व अभी "मीन युग" (Piscean Age) में है।

राशियों में विषुव बिन्दु परस्पर विपरीतगामी गति से घूमते हैं; अतः जब विषुव बिन्दु मीन-कन्या राशियों से बाहर निकलेंगे तो वे कुम्भ-सिंह राशियों में प्रवेश करेंगे। स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी के सिद्धान्त के अनुसार विश्व ने ई। सन् ४९९ में मीन-कन्या युग में प्रवेश किया और दो हज़ार वर्षों पश्चात् ई। सन् २४९९ में कुम्भ-सिंह युग में प्रवेश करेगा। (प्रकाशक की टिप्पणी)
 १२००० वर्षों के बाद जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ में ब्रह्मा से या महाकेन्द्र से सबसे दूर स्थित स्थान में पहुँचता है (जब शारदीय विषुव तुला राशि के आरम्भ स्थान में आता है), तब धर्म का हास होते-होते वह इतनी निकृष्ट अवस्था में पहुँच जाता है कि मनुष्य स्थूल जगत से परे कुछ भी समझ नहीं पाता। उसी प्रकार पुनः सूर्य जब महाकेन्द्र से सबसे निकट स्थान की ओर अपनी परिक्रमा शुरू करता है, तब धर्म का उन्नत होना भी शुरू हो जाता है। यह विकास १२००० वर्षों में धीरे-धीरे पूर्ण होता है।

बारह-बारह हजार वर्षों के ये दोनों ही आवर्त्त काल सम्पूर्ण परिवर्तन लाते हैं बाह्य स्तर पर स्थूल जगत् में भी और आन्तरिक स्तर पर बौद्धिक जगत में भी। इन दोनों आवर्तन कालों को एक-एक देव युग कहा जाता है। इस प्रकार २४००० वर्षों की अवधि में सूर्य अपने द्विक् केन्द्र की एक परिक्रमा पूर्ण करता है जिसमें १२००० वषर्षों का एक आरोही अर्द्धचक्र होता है और १२००० वर्षों का एक अवरोही अर्द्धचक्र।

धर्म (मानसिक सच्चरित्रता) की उन्नति धीरे-धीरे होती है और १२००० वर्षों की अवधि में यह चार अवस्थाओं में विभाजित होती है। १२००० वर्षों के उस काल को, जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ के १/२० वें हिस्से में से भ्रमण कर रहा होता है, (रेखाचित्र देखें) कलियुग कहते हैं। इस काल में धर्म अपनी आरम्भिक अवस्था में होता है। मनुष्य की बुद्धि नित्य परिवर्तनशील बाह्य जगत् से अधिक कुछ भी समझने में समर्थ नहीं होती।

२४०० वर्षों के उस काल को, जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ के २/२० वें हिस्से में से भ्रमण कर रहा होता है, द्वापर युग कहते हैं। इस काल में धर्म अपनी द्वितीय अवस्था में पहुँच जाता है और अर्द्ध-विकसित हो जाता है। मनुष्य की बुद्धि बाह्य जगत् का सृजन करने वाले सूक्ष्म तत्त्वों को और उनके गुणों को समझने लगती है।

३६०० वर्षों के उस काल को, जिसमें सूर्य अपने परिक्रमा पथ के ३/२० वें हिस्से में से भ्रमण करता है, त्रेता युग कहते हैं। तब धर्म तृतीय अवस्था में पहुँच जाता है और मनुष्य की बुद्धि समस्त विद्युत शक्तियों के मूल स्त्रोत को अर्थात् ईश्वरीय चुम्बक शक्ति को समझने में समर्थ हो जाती है। इन विद्युत शक्तियों पर ही सृष्टि का अस्तित्त्व निर्भर है।

४८०० वर्षों के उर्वरित काल को, जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ के ४/२० वें हिस्से में से भ्रमण करता है, सत्य युग कहते हैं। तब धर्म अपनी चौथी अवस्था में पहुँच जाता है और पूर्ण रूप से विकसित हो जाता है। मनुष्य की बुद्धि सब कुछ समझ सकती है - सृष्टि से परे परंब्रह्म का भी उसे पूर्ण ज्ञान हो सकता है।
सत्य युग में हुए महान ऋषि मनु ने अपनी मनु संहिता में इन चार युगों का स्पष्ट वर्णन किया है :-

चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणान्तु कृतं युगम् । तस्य तावच्छती सन्ध्यां सन्ध्यांश्च तथाविधः ।। इतरेषु ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु च त्रिषु। एकापायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च।। यदेतत् परिसंख्यातमादावेव चतुर्युगम् । एतद् द्वादशसाहस्रं देवानां युगमुच्यते ।। दैविकानां युगानान्तु सहस्रं परिसंख्यया। ब्राह्ममेकमहज्ञेयं तावती रात्रिरेव च।।

[ कृत युग (सत्य युग या जगत् का "स्वर्ण युग") चार हजार वर्षों का होता है। उसके उदय की संधि के उतने ही सौ वर्ष होते हैं तथा उसके अस्त की संधि के भी (अर्थत् ४०० + ४००० + ४०० = ४८००)। अन्य तीन युगों में, उनके उदय एवं अस्त की संधियों सहित, हज़ार एवं सौ की संख्या एक से कम हो जाती है (३०० + ३००० + ३०० = ३६००, इत्यादि)। १२,००० वर्षों के इस चतुर्युग के चक्र को एक दैव युग कहा जाता है। एक हज़ार दैव युगों से ब्रह्मा का एक दिन बनता है और उसकी रात भी उतनी ही लम्बी होती है। सत्य युग की अवधि ४००० वर्षों की होती है। उसके आरम्भ होने से पहले अस्तमान होने वाले युग के साथ ४०० वर्षों का तथा उसके समाप्त होने के बाद आने वाले युग के साथ ४०० वर्षों का उसका संधिकाल होता है। इस प्रकार सत्य युग का वास्तविक काल ४८०० वर्षों का होता है। इसके बाद उत्तरोत्तर आनेवाले युगों की एवं युग संधियों की अवधि के निर्धारण के लिए यह नियम है कि हज़ार वर्षों की संख्या से और शत् वर्षों की संख्या से भी, एक का आंकड़ा कम किया जाए। इस नियम के अनुसार त्रेता युग की अवधि ३००० वर्ष एवं आरम्भ तथा अंत में उसका संधि काल ३०० वर्ष होगा, अर्थात् त्रेतायुग की कुल अवधि ३६०० वर्ष की होगी।

अतः द्वापर युग की अवधि २००० वर्ष है और दोनों सिरों का दो-दो सौ वर्षों का संधिकाल मिला कर वह २४०० वर्ष हो जाती है। अंत में कलियुग १००० वर्षों का होता है और एक-एक सौ वर्षों का संधिकाल मिलाकर वह १२०० वर्षों का हो जाता है। इस प्रकार इन चार युगों की अवधियों का कुल योग १२००० वर्ष होता है जो एक दैव युग कहलाता है। ऐसे दैव युगों की एक जोड़ी से, अर्थात् २४००० वर्षों से युग चक्र की एक आवृत्ति पूरी होती है।

ईसा पूर्व सन् ११,५०१ में जब शारदीय विषुव मेष राशि के प्रथम बिन्दु पर था, तब सूर्य का अपने परिक्रमा मार्ग में महाकेन्द्र के सबसे निकट बिंदु से सबसे दूरस्थ बिंदु की ओर भ्रमण शुरू हुआ और उसी के साथ मानव की बुद्धि क्षीण होने लगी। सूर्य को अपने परिक्रमा पथ का ४/२० वाँ हिस्सा अर्थात् सत्य युग का काल तय करने में जो ४८०० वर्षों का समय लगा, उस अवधि में मानव की बुद्धि ने आध्यात्मिक ज्ञान को समझने की अपनी क्षमता पूरी तरह से खो दी। सत्य युग के पश्चात् आए अधोगामी त्रेतायुग के ३६०० वर्षों में सूर्य का भ्रमण जब पूरा हुआ, तब मानव की बुद्धि धीरे-धीरे दिव्य चुम्बक शक्तियों के ज्ञान को समझ पाने में अक्षम होती गयी और अन्ततः उसने वह क्षमता पूरी तरह खो दी। अगले २४०० वर्षों में जब सूर्य अधोगामी द्वापर युग से गुजर चुका तो मानव की बुद्धि विद्युत शक्तियों और उनके गुणों को समझने में असमर्थ हो गई। अगले १२०० वर्षों में सूर्य का भ्रमण अधोगामी कलियुग में हुआ और वह अपने परिक्रमा पथ में महाकेन्द्र से सबसे दूरस्थ बिन्दु पर पहुँच गया। शारदीय विषुव बिन्दु तुला राशि में आ गया था। मानव की बुद्धि इतनी क्षीण हो चुकी थी कि जड़ भौतिक जगत् से परे कुछ भी समझ पाने की क्षमता उसमें नहीं रही। इस प्रकार ईस्वी सन् ५०० का काल कलियुग का और २४००० वर्षों के पूरे युगचक्र का सबसे अन्धकारमय काल था। और सचमुच इतिहास भी भारत के ऋषियों की इस प्राचीन कालगणना की सटीकता को सिद्ध करता है। इतिहास साक्षी है कि इस काल में सभी देशों में व्यापक अज्ञान और दुःख-दैन्य फैला हुआ था।

ईस्वी सन् ४९९ से सूर्य महाकेन्द्र की ओर बढ़ने लगा और मानव की बुद्धि धीरे-धीरे विकसित होने लगी। इस ऊर्ध्वगामी कलियुग के ११०० वर्षों में अर्थात् ईस्वी सन् १५९९ तक मानव बुद्धि इतनी जड़ थी कि उसे विद्युत शक्तियों का अर्थात् सूक्ष्मभूतों का कोई आकलन नहीं हो रहा था। राजनीतिक स्तर पर भी साधारण तौर पर किसी राज्य में शांति नहीं थी।

इस काल के बाद जब कलियुग और उत्तरवर्ती द्वापरयुग के बीच का १०० वर्षों का संधिकाल शुरू हुआ तो लोगों को सूक्ष्म तत्त्वों की या विद्युत शक्तियों के गुणों की अर्थात् पंचतन्मात्राओं की पहचान होने लगी। राजनीतिक स्तर पर भी शांति स्थापित होने लगी।

ईस्वी सन् १६०० के लगभग विलियम गिल्बर्ट ने चुम्बकीय शक्तियों को पहचाना और देखा कि सभी जड़ पदार्थों में विद्युत शक्ति विद्यमान है। १६०९ में केप्लर ने खगोल-विज्ञान के महत्त्वपूर्ण नियमों की खोज की और गैलिलिओ ने टेलिस्कोप का आविष्कार किया। १६२१ में हॉलैण्ड के ड्रेबेल ने माइक्रोस्कोप का आविष्कार किया। लगभग १६७० के आसपास न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण नियम की खोज की। १७०० में टॉमस सेवरी ने पानी ऊपर खींचने के लिये स्टीम इंजन का प्रयोग किया। बीस साल बाद स्टीफन ग्रे ने मानव शरीर पर विद्युत् शक्ति के परिणाम का पता लगाया।

राजनीतिक जगत में आत्मसम्मान का भाव जागा और अनेक प्रकारों से सभ्यता विकसित हुई। इंग्लैण्ड स्कॉटलैण्ड के साथ मिलकर एक शक्तिशाली राज्य बन गया। नेपोलियन बोनापार्ट ने दक्षिण यूरोप में अपनी नयी न्याय संहिता लागू की। अमेरिका स्वतन्त्र हो गया। यूरोप के अनेक हिस्सों में शांति स्थापित हो गयी।

विज्ञान की प्रगति के साथ विश्व भर में रेलवे और टेलिग्राफिक तारों का जाल बिछ गया। सूक्ष्म पदार्थों की रचना का स्पष्ट आकलन तो नहीं हुआ था परन्तु तब भी स्टीम इंजनों, विद्युत् यन्त्रों एवं अन्य अनेक प्रकार के उपकरणों की सहायता से उनका उपयोग किया जाने लगा। १८९९ में जब द्वापर युग की संधि के २०० वर्ष पूरे होंगे तब २००० वर्षों का वास्तविक द्वापर युग शुरु होगा और वह मानव जाति को विद्युत् शक्तियों का तथा उनके गुणधर्मों का पूर्ण ज्ञान प्रदान करेगा।

सृष्टि का शासन चलाने वाले काल की महिमा ऐसी है। कोई मनुष्य काल के इस प्रभाव का उल्लंघन नहीं कर सकता, सिवाय उसके जो प्रकृति की दिव्य देन– शुद्ध प्रेम से ओतप्रोत हो कर ईश्वर तुल्य बन जाता है। प्रणव की पवित्र धारा में शुद्ध हो कर वह ईश्वर के साम्राज्य का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। 

हिंदू पंचांगों में वर्तमान (ईस्वी सन् १८९४) द्वापर संधिकाल में विश्व की जो स्थिति दिखायी जा रही है वह सही नहीं है। पंचांग तैयार करने वाले और काल-गणना करनेवाले फलित-ज्योतिषियों एवं गणित-ज्योतिषियों की गणना पद्धतियों में अंधकारमय कलियुग के कुछ संस्कृत पंडितों (जैसे कल्लुक भट्ट) की गलत टिप्पणियों एवं भाष्यों के कारण भूल आ गयी है और वे अब यह मानते हैं कि कलियुग ४,३२,००० वर्षों का होता है जिसमें से ४९९४ (ईस्वी सन् १८९४ में) वर्ष बीत चुके हैं तथा ४,२७,००६ वर्ष अभी शेष हैं। कितनी भयानक कल्पना ! पर यह सुदैव से सच नहीं है।

पंचांगों में यह भूल अधोगामी द्वापर युग के समाप्त होने के तुरन्त ही बाद राजा परीक्षित के शासनकाल में प्रविष्ट हुई। उस समय महाराज युधिष्ठिर ने जब देखा कि कलियुग शुरु होने जा रहा है तो उन्होंने अपने सिंहासन पर अपने पौत्र परीक्षित को बिठा दिया और वे अपने दरबार के सभी ज्ञानी जनों सहित भूलोक के स्वर्ग हिमालय में चले गये। इसलिये राजा परीक्षित के दरबार में ऐसा कोई भी नहीं बचा था जो युग-युगान्तर की कालगणना के सिद्धान्तों की सही जानकारी रखता हो।

अतः जब उस समय चल रहे द्वापर युग के २४०० वर्ष समाप्त हुए तो कोई भी द्वापर युग की समाप्ति की घोषणा कर कलियुग की गणना शुरु करने का और इस प्रकार उस अन्धकारमय युग को और अधिक स्पष्टता के साथ प्रकट करने का साहस नहीं जुटा पाया।

इसलिये कालगणना की इस गलत पद्धति का अवलंब कर द्वापर युग की ही वर्ष संख्या में एक का आंकड़ा जोड़ कर २४०१ को कलियुग का प्रथम वर्ष माना गया। ईस्वी सन् ४९९ में जब कलियुग की अवधि के १२०० वर्ष पूरे हुए और सूर्य महाकेन्द्र से सबसे दूर के बिन्दु पर पहुँच गया (जब शारदीय विषुव तुला राशि में आया) तो कलियुग के उस सबसे घोर अन्धकारमय काल को १२०० के स्थान पर ३९०० की संख्या दी गयी।

ईस्वी सन् ४९९ के बाद ऊर्ध्वगामी कलियुग शुरु हुआ। सूर्य अपने परिक्रमा पथ में महाकेन्द्र की ओर बढ़ने लगा और फलतः मानव की बुद्धि का तदनुरुप विकास होने लगा। इस कारण पंचांगों में हुई यह भूल उस समय के कुछ विद्वानों के ध्यान में आने लगी क्योंकि उन्होंने देखा कि प्राचीन ऋषियों ने तो कलियुग की अवधि १२०० वर्षों की बतायी है। परन्तु चूँकि इन विद्वानों की भी बुद्धि अभी पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हुई थी, इसलिये वे केवल भूल को ही पकड़ पाये, उसका कारण उनकी समझ में नहीं आ सका। इस भूल का समाधान उन्होंने इस तर्क के साथ किया कि कलियुग की अवधि के जो १२०० वर्ष बताये गये हैं वे हमारे भूलोक के साधारण १२०० वर्ष नहीं रहे होंगे, बल्कि १२०० देव (देवताओं के) वर्ष रहे होंगे जिनके एक वर्ष में ३०-३० दैव दिनों के १२ दैव महीने रहते हैं और एक देव दिन पृथ्वी के १ वर्ष के बराबर होता है। अतः इन विद्वानों ने माना कि कलियुग के १२०० वर्ष अवश्य ही पृथ्वी के ४,३२,००० वर्षों के बराबर रहे होंगे।

परन्तु सही निष्कर्ष पर आने के लिये हमें सन् १८९४ के वसन्त में पड़नेवाले वसन्त विषुव या महाविषुव की स्थिति का विचार करना होगा।

खगोल विज्ञान के ग्रन्थों से पता चलता है कि महाविषुव अभी मेष राशि के प्रथम बिन्दु (रेवती नक्षत्र) से २०° ५४' ३६" दूर है। इसके गणित से यह स्पष्ट हो जाता है कि जब मेष राशि के प्रथम बिन्दु से महाविषुव दूर हटने लगा, तब से अब तक १३९४ वर्ष बीत गये हैं।

१३९४ में से ऊर्ध्वगामी कलियुग के १२०० वर्षों को निकाल दिया जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अब ऊर्ध्वगामी द्वापर युग के १९४ वर्ष बीत चुके हैं। इस प्रकार पुराने पंचांगों में की गयी भूल स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है जब हम १३९४ वर्षों की संख्या में ३६०० वर्षों की संख्या को जोड़ देते हैं और इनका कुल योग हमें मिलता है ४९९४ वर्ष, जो वर्तमान गलत सिद्धान्त के अनुसार हिंदू पंचांगों में इस चालु वर्ष (१८९४) को दिखाता है।

[इस पुस्तक में दिये गये रेखाचित्र को यदि देखें तो पाठक को पता चलेगा कि अभी (ईस्वी सन् १८९४) शरद विषुव ऊर्ध्वगामी द्वापर युग की कन्या राशि के नक्षत्रों में पड़ रहा है।]

इस पुस्तक में कुछ ऐसे तथ्यों का उल्लेख किया गया है जिनका पूर्ण ज्ञान अभी तक आधुनिक विज्ञान को नहीं हुआ है, जैसे चुंबकशक्ति, उसके प्रभामंडल, भिन्न-भिन्न प्रकार की विद्युतशक्तियाँ आदि। यदि तान्त्रिकाओं (nerves) के गुणधर्मों पर ध्यान दिया जाये जिनका स्वरुप पूर्णतः विद्युतीय है, तो पाँच प्रकार की विद्युत शक्तियों का आकलन आसानी से हो सकता है। पाँचों संवेदी तंत्रिकाओं (sensory nerves) में से प्रत्येक तंत्रिका का कार्य अन्य चार से भिन्न है और वह केवल उसी की विशेषता है। दृष्टि से संबंधित तंत्रिका (optic nerve) केवल प्रकाश का ही वहन करती है, वह श्रवण से संबंधित तंत्रिका का या अन्य किसी तंत्रिका का कार्य नहीं करता। श्रवण से संबंधित तंत्रिका (auditory nerve) केवल ध्वनि का ही वहन करती है, किसी अन्य तंत्रिका का कार्य नहीं करती। यही बात अन्य सभी तंत्रिकाओं के साथ भी है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विद्युत शक्ति पाँच प्रकार की है जो ब्रह्माण्ड में व्याप्त महाविद्युत शक्ति के पाँच गुण धर्मों के अनुरूप है।

जहाँ तक चुंबकशक्ति के गुणधमों का प्रश्न है, तो मानव बुद्धि की समझ शक्ति अभी इतनी सीमित है कि साधारण जन को यह समझाने का प्रयास करना ही व्यर्थ है। त्रेता युग के मानव की बुद्धि दिव्य चुंबकशक्ति के गुणधर्मों को आसानी से समझ पायेगी (अगला त्रेता युग ईस्वी सन् ४०९९ में शुरु होगा)। निस्संशय आज भी अपवादस्वरुप ऐसे असामान्य लोग इस संसार में हैं जो काल के प्रभाव से ऊपर उठे होने के कारण उन सब बातों को समझ सकते हैं जो साधारण मनुष्य की समझ से परे हैं, परन्तु यह पुस्तक ऐसे सिद्धों के लिये नहीं है और उन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं।

अन्त में, इस बात पर भी हमें गौर करना चाहिये कि विभिन्न ग्रह सप्ताह के भिन्न-भिन्न दिनों पर अपना प्रभाव डालते हैं और जिस दिन पर जिस ग्रह का प्रभाव होता है उस दिन को उसी ग्रह के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार विभिन्न महीनों पर विभिन्न नक्षत्रों का प्रभाव होता है और जिस महीने पर जिस नक्षत्र का प्रभाव होता है उस महीने को उसी नक्षत्र का नाम हिंदुओं ने दिया है। विशाल युग का तो अपनी कालावधि के समय पर और भी अधिक प्रभाव होता है, इसलिये वर्ष के साथ उसके युग का नाम भी जुड़ा होना चाहिये।

युगों का निर्धारण विषुव की स्थिति से होता है, अतः युगों के संदर्भ में वर्षों का क्रमांकन वैज्ञानिक तत्त्व पर आधारित होता है। इस पद्धति के प्रयोग से गतकाल में विशिष्ट काल का निर्धारण करने में जो समस्याएँ आयी हैं क्योंकि काल की पहचान ग्रह-तारों-नक्षत्रों के साथ जुड़ी न हो कर उस समय के प्रसिद्ध व्यक्तियों के साथ जुड़ी हुई थी, वैसी समस्याएँ फिर नहीं आयेंगी। इसलिये जिस वर्ष में यह भूमिका लिखी जा रही है उस वर्ष को ईस्वी सन् १८९४ लिखने के स्थान पर हम द्वापर १९४ लिखना चाहेंगे जिससे अभी चल रहे युग के निश्चित समय को दर्शाया जा सके। भारत में काल गणना की यह प्रथा राजा विक्रमादित्य के शासनकाल तक प्रचलित थी और उसके शासनकाल से संवत गणना शुरु की गयी। कालगणना की युग पद्धति ही तर्कसंगत लगती है, इसलिये हम इसी पद्धति का उपयोग करते हैं और जनसाधारण से भी प्रतिपादन करते हैं कि वे इसी पद्धति को उपयोग में लाएँ।

अब द्वापर युग के इस १९४ वें वर्ष में, चूँकि कलियुग समाप्त हुए काफ़ी समय बीत चुका है, संसार आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करने लगा है और लोगों को एक दूसरे से प्रेमपूर्ण सहायता की आवश्यकता पड़ रही है। मैं आशा करता हूँ कि मेरे परमगुरु महाराज महावतार बाबाजी के आदेश से लिखी गयी इस पुस्तक का प्रकाशन कुछ आध्यात्मिक सेवा प्रदान कर सकेगा।

                                                                                                                   स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि

श्रीरामपुर, पश्चिम बंगाल 
फाल्गुन २६, द्वापर १९४ 
(ईस्वी सन् १८९४)



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जन जागो जन -जन जागो।
यह की सब इंसान। यही सबसे अच्छी बात है। 
सब को पता है।

          सत्य सरल है।

धर्म ( मानसिक सच्चरित्रता ) एक है।

चाहे सविस्तार या उपसंहार एक है। ईश्वर एक है।

श्री गीता में विदित है, मन का प्रसार ही जगत है। मन मौन है।


और वाचाल वैचारिक वाह्य विचारों स्तर पर मन को भर्मित ही करता है।

क्या असंभव है, कुछ नहीं यही बात का गुणी जन है। जन - जन है।


“मानव जीवन में अमर जीवन है।” 

प्रेम ही वह भाव है जो हृदय को हृदयों से प्रेम से जोड़ता है। 
बाकि सब धार्मिक विचारधाराएं हैं जिन्हें विश्व में हिंदू, ईसाई, इस्लाम, सिख, बौद्ध, जैन, यहूदी, पारसी आदि–आदि। 

साकार और निराकार 
  




 






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